जब हमारा लगाव किसी से या कहीं होने लगता है, तो उसे राग या आसक्ति कहते हैं। ये लगाव यूं ही नहीं होता। इसके पीछे वहां से मिल रहे सुख होते हैं या सुख मिलने की उम्मीद होती है, चाहे वह घर हो, घरवाले हों, रिश्तेदार हों या फिर सुख-सुविधा के साधन। इसका पता तब लगता है, जब सुख मिलना बंद हो जाए या अहम को ठेस पहुंचे। ऐसे में व्यक्ति दुखी हो जाता है और फिर यहीं से द्वेष जन्म लेता है। जहां राग था, अब द्वेष हो गया। बिना राग के द्वेष नहीं होता।
ये राग-द्वेष जिंदगी भर चलता रहता है। इसकी जड़ें मन में इतनी मजबूत हो जाती हैं कि इनके संस्कार जन्म-मरण की वजह बनने लगते हैं और आने वाला जन्म इन्हीं पर निर्भर करने लगता है। फिर जन्म वहीं होता है, जहां पहले राग या द्वेष था। हो सकता है, जो आज दुश्मन है, अगले जन्म में वही बेटा बन जाए, इस जन्म में जो मां है, वह बेटी बन जाए, जो आज आपका नौकर है, अगले जन्म में मालिक बन जाए। जिस घर से आज ज्यादा राग है, हो सकता है, कल कुत्ता बनकर उसी घर के आगे बैठे रहें।
कुछ साधक केवल द्वेष दूर करने में लग जाते हैं। जिनसे द्वेष होता है,
उन्हें मनाने लगते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं कि जहां से राग था, वहीं
से द्वेष आता है और जहां से द्वेष है, द्वेष के दूर होने पर वहीं से राग
भी पैदा होने लगता है। इसलिए हमें द्वेष के साथ-साथ राग को भी दूर करने
की कोशिश करनी चाहिए। जब राग ही नहीं रहेगा, तो द्वेष कैसे पैदा होगा?
राग दूर करने के लिए अपने सीमित प्रेम को बढ़ाते जाओ, इतना बढ़ाओ कि
संसार में सबके लिए एक जैसी प्रेम भावना आ जाए। न किसी के लिए कम, न किसी के लिए ज्यादा।
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Hari Om.
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