अपनी -अपनी रूचि
'बाबाजी ! भगवान का नाम जपने में हमें कोई रस नहीं आता है। भजन करने में मजा नहीं आता। जप में रूचि नहीं होती।'
भाई ! तुम साढ़े तेईस घण्टे अपनी रूचि के काम करते हो आधा घण्टा अपनी रूचि नही है तो कोई बात नहीं। मेरी रूचि के लिए ही जाप करो बेटा ! गुरु की प्रसन्नता के लिए ही ध्यान भजन जप करो। साढ़े तेईस घण्टे तुम अपनी प्रसन्नता के लिए काम करते हो, आधा घण्टा गुरु या भगवान की प्रसन्नता के लिए ही काम या भजन करो।
जप में रूचि नहीं है तो कोई बात नहीं। रूचि न होते हुए भी जप करो। नौकरी में रूचि नहीं होती फिर भी करते हो तो पगार मिलता है।
सुबह-सुबह में सड़क पर साहब जा रहे हैं। पूछाः
"कहाँ जा रहे हो ? नौकरी पर ?"
''नहीं बाबाजी ! सैर करने जा रहा हूँ।"
साढ़े तीन घण्टे बीते। फिर सड़क पर साहब मिले तो पूछाः
"क्यों, सैर करने चले ?"
"नहीं बाबाजी ! नौकरी है आज भी।" उबान के साथ जवाब मिला।
सड़क वही की वही, पैर वही के वही, जानेवाला वही का वही और पूछने वाले भी वही के वही लेकिन जवाब में से उत्साह गायब है। चेहरे पर कोई खुशी नहीं है। नहीं चाहते हुए भी तो नौकरी पर जाना पड़ता है। सज्जन लोगों को भ्रष्टाचारी अमलदार-ऑफिसर लोगों के बीच नौकरी करने जाना अच्छा नहीं लगता। जो खुद भ्रष्टाचार करने लगे हैं उनको सज्जन साहबों के पास नौकरी करना अच्छा नहीं लगता। फिर भी जाते हैं।
चार पैसों के लिए जहाँ जाने की रुचि न होती हो वहाँ भी जाते हो तो गुरु की प्रसन्नता के लिए, भगवान की प्रसन्नता के लिए अपनी रूचि न होने पर भी जप करोगे तो क्या घाटा है?